
जम्मू-कश्मीर पर टूटे कुदरत के कहर ने सब कुछ तबाह कर दिया...60 सालों में हिंदुस्तान का माथा पहली बार पड़ोसी मुल्क के आतंकियों की वजह से नहीं बल्कि पर्यावरण के साथ हो रहे छेड़छाड़ से इस कदर लहुलूहान हुआ...बीते 10 दिनों से घाटी में गूंज रही चीख पुकार ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया...लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दंभ भरने वालों की छाती यहां भी खोखली टीआरपी खोदने से फूली जा रही थी...कल तक उनके ऊटपटांग सवाल शर्मसार कर रहे थे...तो आज बचाव अभियान में उनकी जबरन दखलअंदाजी ने इंसानियत का ही गला घोंट दिया...जिन हेलीकॉप्टरों में 20 लोगों को रेस्क्यू किया जा सकता था...उसमें केवल 14 पीड़ित लोग ही एक बार में बैठाए जा रहे थे...जो नाव 5 पीड़ितों का सहारा बन सकती थी...उसमें भी केवल 2 ही नजर आए...क्योंकि पत्रकारों को इंसानी जान से ज्यादा अपनी टीआरपी की फिक्र थी...गले फाड़े जा रहे थे...चीख पुकार भी सुनाई दिए...लेकिन पीड़ितों के नहीं बल्कि बेशर्म पत्रकारों के...हाथ में गन माइक लिए ये सुरमा इसी फिराक में बैठे रहते थे कि कब कोई शिकारी(पीड़ित) उनके सामने आए...और वो जबरन उनके मुंह में अपना माइक ठूंस के हेडक्वार्टर में बैठे अपने बॉस की बाछें खिला सकें...शर्म आती है ऐसे लोगों को पत्रकार कहते हुए...जिनके लिए इंसानी दर्द से ज्यादा केवल अपनी रोजी रोटी की फिक्र थी...बेहतर होता कि ऐसे लोग जो इस तबाही के बीच खुद को चमकाने पहुंचे थे...अपने साथ आटा...दाल...चावल..लेकर वहां पहुंचते और सेना के जवानों के माध्यम से पीड़ित लोगों की मदद करते...लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका...अपना साधन तो छोड़िए...इन आततायियों ने तो सेना के साजो सामान पर ही कब्जा कर लिया...और उसे ही माध्यम बनाकर खुद का माजने लगे...दर्द होता है ऐसा नजारा देखकर...आखिर टीवी पत्रकारिता कब तक खुद को एक अबोध बालक बताकर जिम्मेदारियों से बचती रहेगी...आखिर कब तक टीआरपी की इस अंधी दौड़ के लिए पत्रकार मातम में भी ढोल नगाड़े बजाते रहेंगे...आखिर कब तक द्रोपदी का यूं ही चीर हरण होता रहेगा...और ये तथाकथित जिम्मेदार लोग आंखें मूंदे हालात बदलने का इंतजार करते रहेंगे...
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