Thursday, September 11, 2014

हिंदुस्तान के माथे पर कलंक !


जम्मू-कश्मीर पर टूटे कुदरत के कहर ने सब कुछ तबाह कर दिया...60 सालों में हिंदुस्तान का माथा पहली बार पड़ोसी मुल्क के आतंकियों की वजह से नहीं बल्कि पर्यावरण के साथ हो रहे छेड़छाड़ से इस कदर लहुलूहान हुआ...बीते 10 दिनों से घाटी में गूंज रही चीख पुकार ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया...लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दंभ भरने वालों की छाती यहां भी खोखली टीआरपी खोदने से फूली जा रही थी...कल तक उनके ऊटपटांग सवाल शर्मसार कर रहे थे...तो आज बचाव अभियान में उनकी जबरन दखलअंदाजी ने इंसानियत का ही गला घोंट दिया...जिन हेलीकॉप्टरों में 20 लोगों को रेस्क्यू किया जा सकता था...उसमें केवल 14 पीड़ित लोग ही एक बार में बैठाए जा रहे थे...जो नाव 5 पीड़ितों का सहारा बन सकती थी...उसमें भी केवल 2 ही नजर आए...क्योंकि पत्रकारों को इंसानी जान से ज्यादा अपनी टीआरपी की फिक्र थी...गले फाड़े जा रहे थे...चीख पुकार भी सुनाई दिए...लेकिन पीड़ितों के नहीं बल्कि बेशर्म पत्रकारों के...हाथ में गन माइक लिए ये सुरमा इसी फिराक में बैठे रहते थे कि कब कोई शिकारी(पीड़ित) उनके सामने आए...और वो जबरन उनके मुंह में अपना माइक ठूंस के हेडक्वार्टर में बैठे अपने बॉस की बाछें खिला सकें...शर्म आती है ऐसे लोगों को पत्रकार कहते हुए...जिनके लिए इंसानी दर्द से ज्यादा केवल अपनी रोजी रोटी की फिक्र थी...बेहतर होता कि ऐसे लोग जो इस तबाही के बीच खुद को चमकाने पहुंचे थे...अपने साथ आटा...दाल...चावल..लेकर वहां पहुंचते और सेना के जवानों के माध्यम से पीड़ित लोगों की मदद करते...लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका...अपना साधन तो छोड़िए...इन आततायियों ने तो सेना के साजो सामान पर ही कब्जा कर लिया...और उसे ही माध्यम बनाकर खुद का माजने लगे...दर्द होता है ऐसा नजारा देखकर...आखिर टीवी पत्रकारिता कब तक खुद को एक अबोध बालक बताकर जिम्मेदारियों से बचती रहेगी...आखिर कब तक टीआरपी की इस अंधी दौड़ के लिए पत्रकार मातम में भी ढोल नगाड़े बजाते रहेंगे...आखिर कब तक द्रोपदी का यूं ही चीर हरण होता रहेगा...और ये तथाकथित जिम्मेदार लोग आंखें मूंदे हालात बदलने का इंतजार करते रहेंगे...

Wednesday, September 10, 2014

ये कैसा ‘माया’ मोह


उत्तर प्रदेश की सियासत के दो धुर विरोधी चेहरे...दोनों अपनी अपनी सियासी जमीन के सरताज भी हैं...और इस खेल के धाकड़ खिलाड़ी भी...लेकिन बुधवार की सुबह सूबे की राजधानी लखनऊ से एक ऐसा बवंडर उठा...जिसने इन दोनों धुर विरोधियों मायावती और मुलायम सिंह यादव की सियासी जमीन को हिला दिया...एक सवाल के जवाब में नेताजी ने मायावती से हाथ मिलाने का संकेत दे दिया...और इस संकेत में दोनों के बीच दोस्ती का सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि वो शख्स बने...जिनके भविष्य को चारा घोटाला चर गया...नेताजी के माया मोह के बाद इतिहास एक बार फिर भविष्य की दहलीज पर दस्तक देने को बेताब दिखा...लालू और मुलायम के बीच पिस रहीं मायावती के जहन में अचानक गेस्ट हाउस कांड की यादें ताजा हो गईं...वही गेस्ट हाउस कांड जब 2 जून 1995 को बीएसपी ने समाजवादी पार्टी से समर्थन खींच लिया था...जिसके कारण सरकार गिर गई थी और मुलायम सिंह यादव की कुर्सी चली गई...इसके बाद इसी दिन सपा के विधायकों और सांसदों की अगुवाई में पार्टी समर्थकों ने लखनऊ के सरकारी गेस्ट हाउस कांड में मायावती और बीएसपी नेताओं पर हमला बोल दिया था...इस कांड से पहले 1993 में सपा और बीएसपी ने साथ मिलकर यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज की थी...तब सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव बीएसपी की मदद से मुख्यमंत्री बने थे...यूपी के अतीत से निकलकर बिहार के वर्तमान में आएं...तो सूबे की फिजा में आए उस सियासी बदलाव की तस्वीर भी उभर आई है...जिसने दो अलग अलग धाराओं को महागठबंधन के मुहाने पर ला खड़ा किया...भारतीय राजनीति में बदलाव की वो बयार चली...जिसने क्षेत्रीय क्षत्रपों को इतना सहज कर दिया कि उन्हे अपने विरोधियों से हाथ मिलाने से भी परहेज नहीं रहा...और इस बदलाव का गवाह वो समय बन रहा था...जिसने लोकसभा चुनाव में ना केवल मुर्झाए कमल को खिलते देखा...बल्कि राजनीति की प्रयोगशाला कहे जाने वाले यूपी और बिहार में बीजेपी को इतिहास लिखते भी...ये उसी नरेंद्र मोदी का करिश्मा था...जो तमाम उतार चढ़ावों के बाद सत्ता के शिखर पर पहुंचे...लेकिन देश की राजनीति में आए इस बड़े बदलाव ने एक भूचाल ला दिया...ये उसी भूचाल का असर था कि बिहार में होने वाले उपचुनाव से पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को जेडीयू नेता और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अच्छे लगने लगे...दोनों लोहिया की क्रांति से जन्मे भाई तक बन गए...तो सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को भी मोदी के खिलाफ मायावती से हाथ मिलाने की सलाह दे डाली...नेताजी जरा देर से जगे...नींद टूटी तो उन्होने नया सियासी शगूफा छेड़कर खुद अपने ही सिद्धांतों को कटघरे में खड़ा कर दिया...उनका ये कहना कि अगर लालू मायावती का हाथ पकड़कर मेरे पास लाएं तो मैं बीएसपी प्रमुख से हाथ मिलाने को तैयार हूं...मुझे इसमें कोई ऐतराज नहीं होगा...नई बहस को जन्म दे गया...लखनऊ से लेकर दिल्ली तक बहस तेज हो गई...कहीं इस मर्म को समझने के लिए पॉलिटिकल पंडित दिमाग के घोड़े दौड़ाने में जुटे थे...तो कहीं सियासत पर संस्कार भारी पड़े रहे थे...मुलायम के भाई और राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव इस बवंडर को थामने की बजाय इसका रुख लालू प्रसाद यादव की तरफ मोड़ते दिखे...तो भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को बैठे बिठाए नेताजी के इस बयान पर चुटकी लेने का मौका मिल गया...यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को जैसे एक बार फिर जवानी के दिनों की याद आ गई...गरजते हुए लहजे में उन्होने साफ साफ कह दिया कि अब बीजेपी को रोक पाना इन क्षेत्रीय क्षत्रपों के बस की बात नहीं रही...तो उत्तर प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने चुटकी भरे अंदाज में कह दिया कि...मुलायम के मायावती के साथ गठजोड़ की खबरों से एक बात साफ हो गई कि मोदी बांटने वाले नहीं बल्कि एकजुट करने वाले नेता हैं...साथ ही उन्होने ये भी कहा कि यूपी विधानसभा में बीएसपी विधायकों का बर्ताव देखकर ही समझ में आ गया था कि वो एसपी की बी टीम बनने को तैयार है...इन दोनों नेताओं से एक कदम आगे बढ़ते हुए गोरखपुर से बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ ने तो समाजवादी पार्टी को गुंडों की पार्टी तक करार देते हुए मायावती को गेस्ट हाउस कांड नहीं भूलने की हिदायत दे डाली...दरअसल यहां ये समझने की जरुरत है कि लालू को नीतीश के साथ की जरुरत क्यों पड़ी...और क्यों उन्होने यूपी में दरकते पिछड़े वोटों को सहेजने के लिए मुलायम को मायावती से गठजोड़ की सलाह दी...जिसका जवाब इस साल हुए 16वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों में मिल जाएगा...बात अगर बिहार की करें तो आम चुनाव के नतीजों ने इस प्रदेश से जुड़ी कई मान्यताओं को न केवल ध्वस्त कर दिया... बल्कि पुराने जातीय समीकरणों के भी बदलने के संकेत दिए...वैसे बिहार में जातीय समीकरण पर चुनाव लड़े जाने की बात पुरानी रही है...लेकिन इस चुनाव के बाद ये तय हो गया कि राजनीतिक दलों के जातीय समीकरणों की दीवारें भी दरकने लगी...शायद यही वजह थी कि जेडीयू 20 से सिमटकर 2 सीटों पर पहुंच गई...तो आरजेडी अपनी पुरानी स्थिति यानी 4 सीटों को किसी तरह से बचाने में कामयाब हुई...लेकिन बीजेपी के नतीजों ने सबको चौंका दिया था...उधर इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे उत्तर प्रदेश में देखने को मिले...जहां सत्ताधारी समाजवादी पार्टी 5 सीटों पर सिमट गई...तो बीएसपी का खाता ही नहीं खुला...लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अब तक के इतिहास में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए रिकॉर्ड 71 सीटों पर बाजी मारी...इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस को जोर का झटका बहुत जोर से लगा था...ये तमाम आकड़े ये बताने के लिए काफी हैं कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने नई ऊंचाइयों को छुआ...तो वहीं क्षेत्रीय दलों की रातों की नींद उड़ा दी...लालू चारा घोटाले में आरोपी होने के कारण अगले 12 साल तक सियासत के मैदान से बाहर हो गए...तो नीतीश बीजेपी से अलग होकर नया जनाधार बनाने की जद्दोजहद में जुटे हैं...उधर समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव जो केंद्र की सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रहे थे...इस बार के आम चुनाव ने उन्हे कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा...मायावती तो जैसे चुनावी रण में दूर दूर तक कहीं नजर ही नहीं आईं...यही वजह रही कि अपने सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए लालू और नीतीश को सालों की दुश्मनी भुलाकर एक दूसरे को गले लगाना पड़ा...लेकिन लालू की सलाह पर मुलायम का मायावती से हाथ मिलाने का सपना उस सपने के टूटने की गवाही देता है...जो नेताजी ने 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा के प्रचंड बहुमत में आने के बाद देखा था...हालांकि मायावती ने मुलायम की हसरतों को एक झटके में ही तोड़ दिया...लेकिन इतना तो तय है कि बदलते सियासी समीकरणों के बीच इन क्षेत्रीय क्षत्रपों को आने वाले कल का खतरा भी अभी से सताने लगा है...नए दौर में भारतीय राजनीति का नया इतिहास भले ही नरेंद्र मोदी ने लिखा हो...लेकिन सियासी मतलबपरस्ती और सत्ता के लिए विरोधियों के कंधों पर चढ़ जाना इसी देश का पुराना मिजाज रहा है...आखिर हो भी क्यों ना...ये राजनीति का पुराना माया मोह जो है... विकास यादव टीवी पत्रकार

नहीं रहे चाचा चौधरी के ‘प्राण’


साल 1994 में गर्मी की छुट्टियां अभी शुरु ही हुई थीं...कुछ दोस्त अपने मम्मी पापा के साथ छुट्टियां बिताने अपने अपने घरों को जाने की तैयारियां कर रहे थे...तो कुछ यूपी के उस छोटे से जिले में रहकर जहां हमारे पिता जी सरकारी नौकर थे...धमाचौकड़ी के नए नए तरीके ढूंढा करते थे...उस वक्त मन बहलाने के लिए इतने साधन नहीं थे जितने आज नजर आते हैं...पर इतना जरुर था कि कमरे के एक कोने में रखा टेलीविजन हमारे सपनों को नई उड़ान देता था...लेकिन वो उड़ान भी बिजली के आने जाने के साथ हिचकोले खाती...दिल बहलाने के लिए पड़ोस में रहने वाले अंकल के पास चले जाते...लेकिन वहां भी बचपन कोई ठौर नहीं तलाश पाता...उसी दौर में कॉमिक्स का कीड़ा लगा...जिसने एक बार फिर हमारे सपनों को नई उड़ान दी...जहां चंद पन्नों में पूरा संसार चुटकियों में सिमट जाता...इसमें जोश था...तो हौसलों की मिसाल भी...पहली बार दर्द और दुख को भी हमने यहीं समझा...कॉमिक्स की इसी दुनिया में हमारा वास्ता उस किरदार से पड़ा...जिसका नाम चाचा चौधरी था...जिनके बारे में हम कहा करते थे कि चाचा चौधरी पड़ोस वाले अंकल से भी ज्यादा होशियार थे...कार्टून की दुनिया के उस अमर किरदार की याद आज इसलिए भी ज्यादा आ रही है...क्योंकि इसे जन्म देने वाले...और इसमें जान फूंकने वाले प्राण साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे...प्राण साहब का पूरा नाम प्राण कुमार शर्मा था...जिनका जन्म 15 अगस्त 1938 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था...उनके करियर की शुरुआत 60 के दशक में दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अखबार मिलाप के लिए कार्टून बनाने से की...उनके बनाए कार्टून चाचा चौधरी और मंगल ग्रह से आए साबू घर घर में चर्चा का विषय बन गए....प्राण साहब की प्रासंगिकता केवल चाचा चौधरी तक ही सीमित नहीं रही...उनके कालजयी कार्टूनों में चुलबुली पिंकी...रमन और श्रीमती जी भी थे...जो आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं...लेकिन चाचा चौधरी की बात ही निराली थी...उस दौर के बच्चों के लिए चाचा चौधरी उतने ही वास्तविक थे...जितने पड़ोस के कोई ताऊ...लेकिन पड़ोस के ताऊ की तरह पगड़ी पहनने वाले चाचा चौधरी की खासियत उस पगड़ी के नीचे उनका वो दिमाग था...जो उस जमाने से कंप्यूटर से तेज भागता रहा...जिस जमाने में भारत में कंप्यूटर की चर्चा शुरू भर हुई थी...चाचा चौधरी का किरदार प्राण साहब ने सबसे पहले हिंदी बाल पत्रिका लोटपोट के लिए गढ़ी...जो बाद में स्वतंत्र कॉमिक्स के तौर पर बहुत मशहूर हुई...देखते ही देखते प्राण साहब कार्टून के आसमान पर चमकता सितारा बन गए...बाद में उन्हे भारत के वॉल्ट डिजनी की उपाधि से भी नवाजा गया...लेकिन उनके निधन के बाद अचानक से हमारे सामने बचपन की वो धुंधली तस्वीरें ताजा हो गईं...जिन पर उस दौर के हमारे साथियों को बहुत नाज होगा...पूरी गर्मी की छुट्टियां इसी उधेड़बुन में निकल जाती थीं कि इस बार चाचा चौधरी के कितने कॉमिक्स पढ़े...क्योंकि तब कॉमिक्स खरीदकर नहीं किराए पर लेकर पढ़े जाते थे...उस वक्त एक कॉमिक्स का किराया 20 पैसे होता था...जिसके लिए बचपन में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती थी...कई बार तो चाचा चौधरी के तेज दिमाग को पढ़ने के लिए काफी दूर भी जाना पड़ता था...चुनौतियां बहुत थीं...लेकिन बचपन कभी बेबस नजर नहीं आया...शुरुआती दिनों में एक दो घंटे कॉमिक्स में डूबने के बाद ऐसा चस्का लगा कि पूरा दिन पीठ सीधी किए हम यार दोस्त कई कॉमिक्स चाट जाते...चाचा चौधरी की कहानी इतनी रोचक और ज्ञानवर्धक थी...कि इसमें सामाजिक बुराईयों का समाधान करने की सीख मिलती...दायरे टूटने लगे...कॉमिक्स की चहारदीवारियों से बाहर निकल वो किस्से कहानियां अब बड़े बड़ों को सोचने पर मजबूर कर देतीं...हमारे सवालों और शैतानियों से परेशान मां भी ताने मारने लगती...उसे तो टेलीविजन और पड़ोस की आंटी से बदकही छोड़ हमारी दुनिया समझ ही नहीं आती...पिता जी भी शाम को घर आने के बाद एक बार डांट पिलाना अपना फर्ज समझते...लेकिन हम तो अपनी ही धुन में मगन थे...हर सुबह चुनौती इसी बात की होती कि नया कॉमिक्स पढ़ने के लिए पैसों का जुगाड़ कहां से होगा...लेकिन जैसे तैसे हो ही जाता था...इन कॉमिक्सों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता मानो चाचा के साथ मंगल ग्रह से आया साबू भी हमारे पड़ोस में ही रहने लगा...छुट्टियां खत्म होने के बाद भी प्राण साहब के ये अमर किरदार हमारे जहन से नहीं जाते...स्कूल में बात बात में चाचा चौधरी...साबू...पिंकी और रमन की बातें यूहीं छिड़ जातीं...कई बार तो मास्टर जी भी हमारी कल्पनाओं पर भड़क जाते...शिकायत घर तक पहुंचती...लेकिन मां और पिताजी भी हमारी आदतों से मजबूर थे...जैसे जैसे बचपन जवानी की दहलीज पर पहुंच रहा था...वैसे वैसे हम चाचा चौधरी और दूसरे कार्टून किरदारों से दूर होते चले गए...लेकिन यादें कभी दिल से भुलाई नहीं जा सकीं...जमाना इंटरनेट का आया तो लगा सोच को और विस्तार मिलेगा...लेकिन बीते 10 सालों में हमने सोच को एक कमरे तक सिमटते भी देखा...आज का बचपन कल्पनाओं की उड़ान तो भरता है...लेकिन भविष्य में अतीत पर इतराने के लिए उनके पास कुछ ऐसा नहीं होगा...जिस पर हम गर्व महसूस करते हैं...इस दौर में कई किस्से-कहानियां...और किरदारों का जन्म हुआ...लेकिन वो अपनी अमिट छाप छोड़ने में बहुत हद तक कम ही सफल नजर आ रहे हैं...5 अगस्त को चाचा चौधरी को प्राण देने वाले प्राण साहब का एक लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ तो लगा कि जैसे हमारे बचपन के उन कार्टून किरदारों का दिल ही टूट गया...हममें से जिसने भी उनके इस दुनिया से चले जाने की खबर जहां भी सुनी...अपने आस पास उन्ही किरदारों को रोते सुना...लगा मानो कम्यूटर से तेज दिमाग चलाने वाले...चाचा चौधरी का पूरा शरीर ही सुन्न पड़ गया...मंगल ग्रह से धरती पर अपनी दिलेरी दिखाने के लिए अवतरित हुआ साबू भी बेसहारा नजर आने लगा...पिंकी और बिल्लू भी अपनी शैतानियों को भूल हमेशा के लिए जड़ से हो गए...तो श्रीमती जी के चेहरे पर सन्नाटा छा गया...कार्टून की दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले प्राण साहब के निधन के बाद उन्हे श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगने लगा...रंग बिरंगे कार्टूनों और अलग अलग किस्मों की मुद्राएं लिए तस्वीरों से फेसबुक के पन्ने पट गए...इन छवियों में तमाम वही चर्चित चरित्र थे...जिन्हे प्राण साहब ने अपनी बेजोड़ कल्पनाशीलता से गढ़ा था...फेसबुक के जमाने में ऐसा होना आम बात है...लेकिन आज के दौर के बच्चों को ये जरूर चौंकाने वाला लगा...ऐसा लगा जैसे कोई लोकप्रिय अभिनेता या गायक हमारे बीच से चला गया हो...अपने बचपन के दिनों में हमने कभी प्राण साहब को तलाशने की कोशिश नहीं की...और ना ही कभी उनके बारे में जानने की...बेशक वो अभिनेता नहीं थे और ना ही कोई गायक...लेकिन आज करीब 20 साल गुजरने के बाद वो हमारे लिए इन सबसे भी कहीं बढ़कर नजर आ रहे हैं...कहते हैं कि बच्चों के लिए काम करने वालों को सम्मान मिले या ना मिले...प्यार बहुत मिलता है...और प्राण साहब के साथ भी यही है...क्योंकि उनकी याद एक पीढ़ी के लिए उसके बचपन की याद है...जिन दोस्तों का बचपन 20वीं सदी के आठवें और नौवें दशक में बीता...उनके लिए चाचा चौधरी महज कोई कार्टून किरदार नहीं...पहली बार जब चाचा चौधरी का कॉमिक्स पढ़ा तबसे लेकर आज तक दुनिया में कई उतार चढ़ाव आए...कभी जिंदगी संघर्षों के बीच फंसी नजर आई...तो कभी बिना लगाम के मंजिल की तलाश में सरपट दौड़ती...लेकिन प्राण साहब के इस दुनिया से अलविदा कहने के बाद इन 20 सालों का सफर जैसे उनके रचे कार्टूनों के ईर्द गिर्द सिमटा नजर आया...भारत के वॉल्ड डिजनी कहे जाने वाले इस महान कार्टूनिस्ट को भले ही कोई याद रखे या ना रखे...लेकिन हमारी पीढ़ी के लोग कभी इन्हे भुला नहीं पाएंगे...क्योंकि जिस दौर में हमारा बचपन गुजरा...उस दौर में भले ही कंप्यूटर के किस्से नहीं थे...लेकिन प्राण साहब के अमर किरदार चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से तेज जरुर चलता था... विकास यादव टीवी पत्रकार