Wednesday, February 3, 2010

दिल तो बच्चा है जी...


मीडिया वाले भी कितना बेदर्द होते हैं, कहीं किसी दिल के टूटने की खनक हुई नहीं कि इनके कान बजने लगते हैं, और किसी जल्लाद की माफिक ये लोग हाथ धो के उस रिश्ते का पोस्टमार्टम करने बैठ जाते हैं, आब कल का ही एक वाकया ले लीजिये,ख़बर आई कि सानिया मिर्जा और सोहराब की सगाई टूट गई, ख़बर..ख़बर बनती इससे पहले ही सानिया और सोहराब के घर के बाहर फटीचर काल के कुछ टीवी पत्रकार मंडराने लगे, कंधे पर बड़ा सा पी डी १७० कैमरा और हाथों में चेनलों की आईडी लगे माईक, ऐसा लग रहा था कि इन लोगों ने दो टूटे दिलों की दास्तान सार्वजनिक करने का ठेका ले लिया हो, उधर फटीचर काल की टीवी पत्रकारिता के कुछ तथाकथित युवा पत्रकार अब सानिया के अकेलेपन का साथी बनने का बीड़ा उठा लिया हो, और अपना बायोडेटा सजाने में मशगूल हो गये थे, ये सब देखकर मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, क्या यही है पत्रकारिता का असली चेहरा जिसका सपना पाले हम सब यहां आये थे, आखिर ये फटीचर युग के तथाकथित पत्रकार ख़बरों का चीरहरण कर साबित क्या करना चाहते हैं, क्या ये सब परोसकर हम अपने पेशे से वफादारी करने का दावा ठोंक सकते हैं, कुछ बुद्धिजीवी मानते हैं कि टीवी पत्रकारिता अभी शैशवाकाल के दौर से गुजर रही है, लेकिन आये दिन टीवी पत्रकारिता के इसी लड़कपने में नित नये खुलासे भी हो रहे हैं, कभी मुंबई आतंकी हमले में एकमात्र जिंदा पकड़ा गया आतंकी कसाब की खुराक पर हो रहे सालाना खर्च पर टीवी में चिंतन बैठक बुलाई जाती है, तो कभी देश में हॉकी के गिरते हालात पर लोग एसी कमरों में सूट बूट पहनकर लंबी लंबी बहस बाजियों को जन्म दिया जाता है, और ये सब हो रहा है टीवी पत्रकारिता के इसी बाल्यावस्था में, क्या सचमुच में टीवी पत्रकारिता का ये दौर एक बच्चे की माफिक खेलने कूदने का है, या फिर जानबूझकर ये खेल खेला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर टीआरपी की मची होड़ में पत्रकारिता के टुच्चेपन की झलक साफ नजर आती है, ये तो आपको ही तय करना होगा कि ये हमारी टीवी पत्रकारिता का कौन सा दौर है, शैशवाकाल, या फिर फटीचर काल की फूहड़ झलक, ये तो वही बात हो गई कि पता तो सब कुछ है साहब लेकिन क्या करें गल्ती से मिस्टेक हो गई...

संप्रति - विकास यादव
टीवी पत्रकार
मोबाइल - ०९७०४३९०४८५

नोट - ये पत्रकार की निजी राय है

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