Saturday, December 18, 2010

हौसलों की उड़ान....

होके मायूस ना यूं शाम से ढलते रहिए
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
एक ही पांव पे ठहरोगे तो थक जाओगे
धीरे धीरे ही सही दोनों पांव पे चलते रहिए

Sunday, September 26, 2010

रिश्तों की डोर..



दो वक्त की रोटी और सर पे साया भी है
फिर ये चंचल मन क्या कुछ अभी गंवाया भी है
घर से इतनी दूर आये चार पैसा कमाने
जिंदगी ने पैसों के सिवाय बहुत कुछ सिखाया भी है
उलझता है मन कभी इस दौड़भाग की जिंदगी से
आज भी क्या कुछ खोया, कुछ पाया भी है
बड़े अजीब हैं वो लोग जो मुहब्बत के नाम से घबराते हैं
हमने तो हर उस शख्स से प्यार किया जिन्होने दिल दुखाया भी है
डर लगता है मुझे, जो कभी मैं..मैं से मिला
अहंकार ही है जिसने अपनों का साथ छुड़ाया भी है
क्या सोचते हैं वो लोग जिनके लिए पैसा ही सब कुछ है
इस रिश्ते से भी प्यारा एक रिश्ता है
जो हमें अपनों के करीब लाया भी है

छू के मत देखना...


देवता है कोई हममे न फरिश्ता कोई
छू के मत देखना हर रंग उतर जाता है
मिलने जुलने का सलीका है जरूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाकातों में ही मर जाता है

कल की आवाज...


अजीब इस दुनिया का रिवाज है
हर शख्स यहां सुकून के लिए मोहताज है
हर रोज कई लोग नये मिलते हैं
कुछ खुद ही भूल जाते हैं, कुछ भूलाये नहीं भूलते हैं
हर एक नई सुबह कुछ खाब नये लाती है
शाम होते ही ये खाब अब इन आंखों को सताते हैं
ऐ खुदा इन आंखों में गर नया खाब कोई आये
सोते हुए मेरे मन को झकझोर ना जाये

Friday, September 24, 2010

मेरा गांव...


अरसा गुजर गया मैंने वो खुशहाली नहीं देखी
गांव में अब लोगों की वो चहलकदमी नहीं देखी
वो भी क्या वक्त था...
जब किसी के चेहरे पर मैने बेरुखी नहीं देखी
अरसा गुजर गया मैने वो खुशहाली नहीं देखी
बूढ़ी दादी की शक्ल आज भी ढूंढ़ता हूं मैं
शायद किसी ने उनकी वो हंसी नहीं देखी
गांव में कोयल की कू से मन झूम जाता था मेरा
शायद किसी ने वैसी हरियाली नहीं देखी
दादा की मेहनत देखकर दंग रह जाता था मैं
हमने सूरज की वो तपती गर्मी नहीं देखी
अरसा गुजर गया मैंने वो खुशहाली नहीं देखी
गांव में अब वो लोगों की चहलकदमी नहीं देखी

Thursday, September 23, 2010

मंजिल की तलाश में...


मंजिल की तलाश में हर शख्स
सफर करता है पूरी रात
इस उम्मीद में
कि इस काली रात के बाद
आयेगी वो नयी सुबह
जिसकी है उसे तलाश
लेकिन इस काली रात की चादर
इतनी लंबी होगी
इसका नहीं था उसे एहसास
जागते जागते सो जाता है वो
फिर जब नींद खुलती है तो डर जाता है वो
फिर भी एक आस लिए
चल पड़ता है अपनी मंजिल की तलाश में
शायद मनुष्य का यही सबसे बड़ा गुण है
जो उसे निरंतर
जीवन की इस सच्चाई (संघर्ष)
से भी लड़ने को प्रेरित करता है
एक लंबे जीवन संघर्ष के बाद
आखिर मिल ही जाती है
उसे एक आशा की किरण
लेकिन जिसकी मंजिल का सूरज
अभी भी अस्त है
वो भी इस कठिन राह पर चलते हैं
मिलेगी उन्हे भी उनकी मंजिल एक दिन
जिसकी उसे आज भी तलाश है

क्यूं होता है दर्द...


क्यूं होता है दर्द आदमी को
मन हो जाता है व्यथित
एक एक पल लगता है सालों जैसा
सपनों में भी
चले आते हैं वो लोग
जो बिछड़ गये हैं कहीं
बाकी है तो केवल उनकी याद
जो देती रहती है हमें दर्द
कई बार सोते सोते
उठ बैठता हूं मैं
मानो उसके स्पर्श ने ये एहसास दिलाया हो
कि मैं तुमसे दूर ही कब गया
ये तो तुम थे जिसने मुझसे इतनी उम्मीद की
अब समझ में आया
सारे दर्द की वजह क्या है
ना मैंने किसी से उम्मीद की होती
ना जल रहा होता इस विरह की आग में
अब तो लगता है
जैसे सब सही कहते हैं
गलती मेरी ही थी
जो मैने सोचा क्या था
और मुझे मिला क्या है

Tuesday, September 21, 2010

अयोध्या का सच..


अयोध्या..एक ऐसा शहर जहां की सुबह राम नाम से होती है तो शाम अजान के साथ ढलती है..लेकिन ६ दिसंबर १९९२ को जिस विवाद का जन्म हुआ..उसने ना सिर्फ इंसानियत को बल्कि देश के सियासी हालात को भी बेनकाब़ कर दिया..देखते ही देखते धार्मिक आस्था का केन्द्र ये शहर जंग का मैदान बन गया..ऐसा लग रहा है मानो तेजी से आये इस बदलाव पर अयोध्या ख़ुद से ये पूछ रहा हो कि क्या यही था मेरा भविष्य..सदियों का इतिहास विवाद की आंधी में किसी किताब के पन्ने की तरह फाड़कर फेंक दिया गया..राम नाम की धुन में रमे रहने वाले इस शहर की चमक फैली भी तो कैसे..पूछिए मत..जिन लोगों को हमारी संस्कृति और सभ्यता को दुनिया के नक्शे पर लाना चाहिए था..वही लोग धर्म और मज़हब के नाम पर देश को बांटने में लग गये..२४ सितंबर को बाबरी मस्जिद के मालिकाना ह़क का फैसला आयेगा..बेशक कुछ लोगों के चेहरे खिल उठेंगे..तो कुछ की मुस्कुराहट छिन जायेगी..लेकिन आने वाले वक्त में जब जब इतिहास के पन्नों को पलटा जायेगा..तब तब इसकी टीस हमारी नई पीढ़ियों के दिलों में तूफान पैदा करती रहेगी..

Wednesday, February 3, 2010

दिल तो बच्चा है जी...


मीडिया वाले भी कितना बेदर्द होते हैं, कहीं किसी दिल के टूटने की खनक हुई नहीं कि इनके कान बजने लगते हैं, और किसी जल्लाद की माफिक ये लोग हाथ धो के उस रिश्ते का पोस्टमार्टम करने बैठ जाते हैं, आब कल का ही एक वाकया ले लीजिये,ख़बर आई कि सानिया मिर्जा और सोहराब की सगाई टूट गई, ख़बर..ख़बर बनती इससे पहले ही सानिया और सोहराब के घर के बाहर फटीचर काल के कुछ टीवी पत्रकार मंडराने लगे, कंधे पर बड़ा सा पी डी १७० कैमरा और हाथों में चेनलों की आईडी लगे माईक, ऐसा लग रहा था कि इन लोगों ने दो टूटे दिलों की दास्तान सार्वजनिक करने का ठेका ले लिया हो, उधर फटीचर काल की टीवी पत्रकारिता के कुछ तथाकथित युवा पत्रकार अब सानिया के अकेलेपन का साथी बनने का बीड़ा उठा लिया हो, और अपना बायोडेटा सजाने में मशगूल हो गये थे, ये सब देखकर मैं एक पल के लिए हैरान रह गया, क्या यही है पत्रकारिता का असली चेहरा जिसका सपना पाले हम सब यहां आये थे, आखिर ये फटीचर युग के तथाकथित पत्रकार ख़बरों का चीरहरण कर साबित क्या करना चाहते हैं, क्या ये सब परोसकर हम अपने पेशे से वफादारी करने का दावा ठोंक सकते हैं, कुछ बुद्धिजीवी मानते हैं कि टीवी पत्रकारिता अभी शैशवाकाल के दौर से गुजर रही है, लेकिन आये दिन टीवी पत्रकारिता के इसी लड़कपने में नित नये खुलासे भी हो रहे हैं, कभी मुंबई आतंकी हमले में एकमात्र जिंदा पकड़ा गया आतंकी कसाब की खुराक पर हो रहे सालाना खर्च पर टीवी में चिंतन बैठक बुलाई जाती है, तो कभी देश में हॉकी के गिरते हालात पर लोग एसी कमरों में सूट बूट पहनकर लंबी लंबी बहस बाजियों को जन्म दिया जाता है, और ये सब हो रहा है टीवी पत्रकारिता के इसी बाल्यावस्था में, क्या सचमुच में टीवी पत्रकारिता का ये दौर एक बच्चे की माफिक खेलने कूदने का है, या फिर जानबूझकर ये खेल खेला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर टीआरपी की मची होड़ में पत्रकारिता के टुच्चेपन की झलक साफ नजर आती है, ये तो आपको ही तय करना होगा कि ये हमारी टीवी पत्रकारिता का कौन सा दौर है, शैशवाकाल, या फिर फटीचर काल की फूहड़ झलक, ये तो वही बात हो गई कि पता तो सब कुछ है साहब लेकिन क्या करें गल्ती से मिस्टेक हो गई...

संप्रति - विकास यादव
टीवी पत्रकार
मोबाइल - ०९७०४३९०४८५

नोट - ये पत्रकार की निजी राय है

Thursday, January 14, 2010

An evening at etv news room(UP)


साथियों के नाम....
तारीख ३० जूलाई..दिन की दूसरी शिफ्ट बस कुछ ही पलों में मोर्चा संभालने वाली थी..लेकिन इससे पहले कि मेरे साथी गण मोर्चा संभालते..एक ख़ास विषय पर चर्चा का माहौल गरमाने लगा था..हांलाकि हम सभी एक मीडिया हाउस में काम करते हैं..लेकिन यहां चर्चा का विषय दिन की कोई बड़ी ख़बर नहीं थी..बल्कि ख़बरों में मसाला लगाकर परोसने वाले हमारे साथी..पिछले कई महीनों से उड़ रही प्रोबेशन की ख़बरों को लेकर आज भी आपस में उलझे पड़े थे...
बहरहाल जो सपना पिछले कई महीनों से हमारे साथियों की आंखों में चमक रहा था..उसके सच होने का वक्त आ गया था..साथियों ने अपने अपने मोर्चे संभाल लिये थे..हाथ तो माउस पर थे..लेकिन पूरा ध्यान मोबाइल फोन पर था..हर साथी इसी उम्मीद में बैठा था कि ना जाने कब मोबाइल एक मधुर धुन छेड़ दे..और खली पड़े खाते में एक भारी भरकम रकम गिर जाये..हम सब इन्ही खयालों में डूबे हुए थे..कि इतने में एक साथी के मोबाइल फोन पर बीप की ध्वनि सुनाई दी..इतने में सबकी निगाहें उस साथी की ओर उठने लगीं..आखिर वही हुआ जिसका अंदेशा था..भाई के खाते में १३००० रूपये गिर चुके थे..और इतनी रकम देखकर उसकी आंखें भी चौधियां गई थीं..
धीरे धीरे सबके फोन पर चेहरों को हरा कर देने वाले संदेश आने लगे..लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके मोबाइल फोन का नंबर वेतन देने वाले बैंक के पास मौजूद नहीं था..सो अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई जानने के लिए उनकी उत्सुकता बढ़ना लाजमी थी..अब धीरे धीरे शिफ्ट भी अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी..और ऐसे में साथियों के चेहरों पर जीत की खुशी साफ पढ़ी जा सकती थी..इधर रात अपने पूरे शबाब पर थी..तो उधर साथियों की ख़ुमारी भी बढ़ती जा रही थी..सबकी जुबां पर बस एक ही सवाल था कि जश्न की तैयारी कैसे की जाये..
बहरहाल नौजवानों के जश्न मनाने का तरीका तो आप भी जानते होंगे..इस मुद्दे पर बिना कोई बहस किये हमें साथियों के उज्जवल भविष्य की कामना करनी चाहिए..और जीवन में थोड़ा धैर्य रखने की नसीहत भी देना चाहिए...

सदैव आपका....
विकास यादव

सार - ईटीवी न्यूज में तय समय से बहुत बाद में हुए प्रोबेशन की सच्ची घटना पर आधारित