मीलों का सफर
Thursday, June 30, 2016
अथ श्री महा'प्रदेश' कथा...
धर्म और जाति के महायुद्ध के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर लौट आया है रामायण और महाभारत काल.. किसी को उम्मीद है कि इस बार के चुनाव में ‘राम’ की घर वापसी हो जाएगी.. तो कोई कुल और जाति की हैसियत देख ‘कान्हा’ और ‘दाऊ’ पर दांव खेल रहा है.. इस बार के चुनाव में आपको ‘सुदामा’ भी नजर आएंगे.. तो ‘सबरी’ से बैर रखने वाले उसके जूठे बेर भी खाएंगे.. शुरुआत भारतीय जनता पार्टी से हुई जब अप्रैल महीने में खबर आई कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को केशव मिल गए.. ये वो केशव नहीं हैं जिन्होने कंस का वध किया.. और ना ही वो जिनकी दिवानी मथुरा की गोपियां थीं.. बल्कि चुनावी बिसात पर ऐसे महापुरुषों की महानता का पैमाना जाति के आधार पर तय किया जाता है.. यूपी में बीजेपी के केशव का पूरा नाम केशव प्रसाद मौर्य है.. जो कोइरी समाज से आते हैं.. कोइरी समाज उस पिछड़ा वर्ग का हिस्सा है.. जो यूपी का सबसे बड़ा समूह और कुल आबादी का करीब 40 फीसदी है.. एक तरह से प्रदेश की राजनीति में पिछड़ा वर्ग की भूमिका काफी अहम है.. जिसमें यादव, जाट और कुर्मी प्रमुख हैं.. यादवों की कुल आबादी करीब 10 फीसदी है.. जबकि जाट करीब 7 फीसदी और कुर्मी प्रदेश की कुल आबादी का करीब 3 फीसदी हैं.. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी को गैर यादव जातियों में कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा जातियों का वोट मिला था.. केशव प्रसाद मौर्य राजनीति के बहुत दिग्गज खिलाड़ी तो नहीं हैं.. लेकिन हां वो जिस पार्टी से आते हैं वहां लोहे को सोना बनाने वाला पारस पत्थर जरुर है. ये बात और है कि दिल्ली और बिहार में पारस पत्थर अपनी शक्तियां खो चुका था.. लेकिन असम में बीजेपी की जीत ने इसे फिर से चार्ज कर दिया.. शायद इतना कि राजनाथ सिंह को फिर श्रीराम याद आने लगे.. कहने लगे कि अगले साल के विधानसभा चुनाव में 14 साल का वनवास खत्म होगा.. घर वापसी बीजेपी की होगी या राम की ये तो राजनाथ जानें मगर इतना तो तय है कि उत्तर प्रदेश में इस बार सियासी घमासान अपने चरम पर रहने वाला है.. अगर ऐसा ना होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इलाहाबाद में प्रदेश की जनता से ये ना कहना पड़ता कि आप हमें 5 साल का मौका दीजिए, अगर हम काम नहीं कर पाए तो लात मारकर सत्ता से निकाल दीजिएगा.. देश के सबसे बड़े और राजनीतिक महत्व से सबसे अहम राज्य में सत्ता सुख के लिए कमोबेश ये बेचैनी सभी राजनीतिक दलों में देखने को मिल रही है.. कहीं पार्टी के मुखिया वोट बैंक के लिए अपने ही मायाजाल में उलझते नजर आ रहे हैं तो कहीं मोहरे हवाओं का रुख भांप रहे हैं.. सीटों के गुणा-गणित में नए नए सिद्धांत सामने आ रहे हैं.. कल तक जो पार्टी गुंडों से पीछा छुड़ाने की बात करती थी.. वहां माफियाओं की आरती की जा रही थी.. लखनऊ से खबर आई कि मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय हो गया.. वो भी अखिलेश यादव की नाक के नीचे.. वही अखिलेश जिन्होने 2012 विधानसभा चुनाव से पहले डीपी यादव को पार्टी में लेने से मना कर दिया था.. और जनता के बीच ये संदेश देने की कोशिश की थी कि उनके रहते सपा में गुंडे-माफियाओं की जगह नहीं.. हालांकि अखिलेश यादव के विरोध के बाद विलय रद्द कर दिया गया.. लेकिन चर्चाओं का बाजार गर्म है कि जिस तरह से मोदी इफेक्ट यूपी में बढ़ रहा है उससे सपा की बेचैनी भी बढ़ने लगी है लिहाजा वो अपने मुसलमान वोट बैंक को किसी भी कीमत पर छिटकने नहीं देना चाहती.. वोट बैंक के इसी गुणा-गणित के एक और दिग्गज खिलाड़ी बनकर उभरे स्वामी प्रसाद मौर्य.. जिनकी गिनती चंद दिनों पहले तक मायावती के भरोसेमंद योद्धाओं में होती थी लेकिन अब वो गद्दार हैं.. स्वामी प्रसाद मौर्य ने अचानक बसपा से इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया था.. शायद उनकी इस गद्दारी की वजह वो लहर हो.. जिस पर सवार होकर वो सत्ता के गलियारों में बने रहना चाहते हैं.. जाति और धर्म पर आधारित राजनीति वाले इस प्रदेश में करीब 21 फीसदी दलित.. 40 फीसदी पिछड़ा वर्ग.. मुसलमान करीब 18 फीसदी और सवर्ण करीब 20 फीसदी हैं.. लेकिन सत्ता उसी के हाथ लगी है जो अपने पारंपरिक वोट बैंक के साथ अति पिछड़ा वर्ग और दलितों के वोट बैंक में सेंधमारी कर पाया है.. इस फॉर्मूले को सोशल इंजीनियरिंग कहते हैं जिसने कभी मायावती तो कभी अखिलेश की प्रचंड बहुमत की सरकार बनाई.. याद कीजिए तब बीजेपी दूर दूर तक कहीं नहीं थी.. लेकिन केंद्र में मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद हालात दूसरे हैं.. भूल जाइए 2012 के विधानसभा चुनाव में इस ऐतिहासिक धरती पर क्या हुआ.. दिल थाम के इंतजार कीजिए चुनावी सरगर्मियों के शुरू होने का.. क्योंकि इस बार की जंग में बहुत कुछ नया होने वाला है.
विकास यादव
टीवी पत्रकार
Thursday, September 11, 2014
हिंदुस्तान के माथे पर कलंक !
Wednesday, September 10, 2014
ये कैसा ‘माया’ मोह
नहीं रहे चाचा चौधरी के ‘प्राण’
Sunday, December 18, 2011
खामोश हो गये गरीबों के व्यास

अदम गोंडवी..वो कलम के सिपाही तो नहीं थे,लेकिन उनकी कलम की धार तलवार से कम भी नहीं थी.उनका हर एक शब्द आज की दोगली सियासत की धज्जियां उड़ाने के लिए काफी होता था.उनकी रचनाएं अंतर्मन में तूफान पैदा कर देती थीं.पेश से किसान अदम जी की लेखनी हमेशा आम आदमी के ईर्द गर्द ही घूमती नजर आई.उनकी हर एक रचना आज की घटिया राजनीति और राज्य व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा होता था. तरक्की और विकास के ढिंढोरे से कोसों दूर उनकी कविताएं दो वक्त की रोटी के लिए जूझते आम आदमी के दर्द को उकेरती थी.आज गोंडवी जी के निधन पर मुझे सुधाकर जी से किया हुआ एक वादा याद आ गया,गोंडवी जी से मेरी पहली मुलाकात(उनकी रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य)सुधाकर जी ने ही कराई थी.ये उनकी लेखनी का ही जादू था कि पहली ही मुलाकात में मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक बन बैठा.उनको पढ़ते पढ़ते हम अक्सर आम आदमी के जीवन संघर्ष की गहराईयों में खो जाते और जब आम आदमी का दर्द उनकी रचनाओं से निकलकर बाहर आता तो कुछ ना कर पाने की एक लंबी खामोशी हमें हर सवाल का जवाब दे देती.फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने कहा था"a man is born free but everywhere he is in chain" सदियां आईं और चली गईं लेकिन आम आदमी के हालात बद से बदतर होते चले गये.क्या लोकतंत्र क्या तानाशाही जिसे मौका मिला सत्ता की भूख ने सबसे अधिक आम आदमी के पेट पर ही लात मारी.
आज अदम जी हमारे बीच नहीं हैं,लेकिन उनकी रचनाएं हमेशा दिलों में तूफान पैदा करती रहेगी
विकास यादव
(टीवी पत्रकार,हैदराबाद)
Saturday, May 21, 2011
सियासतनामा...

मैं दहशतगर्द था मरने पर बेटा बोल सकता है
हुकुमत के इशारे पर तो मुर्दा बोल सकता है
हुकुमत की तवज्जो चाहती है ये जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है
कई चेहरे अभी तक मुहजबानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना ये गूंगा बोल सकता है
अदालत में गवाही के लिए लाशें नहीं आतीं
वो आंखें बुझ चुकी हैं फिर भी चश्मा बोल सकता है
बहुत सी कुर्सियां इस मुल्क में लाशों पर रखी हैं
ये वो सच है जो झूठे से भी झूठा बोल सकता है
Tuesday, May 17, 2011
लाश...नहीं, राख पर सियासत...
राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा ये बता पाना बेशक मुश्किल है,लेकिन चुनावी समर में किसकी क्या औकात है ये बताने की बिल्कुल भी जरुरत नहीं.भट्टा पारसौल में किसान आंदोलन के बाद भड़की आग इस कदर विकराल हुई कि नेताओं के वारे न्यारे हो गये.जिसको देखो वही लंगोट कसकर किसानों का मसीहा बनने निकल पड़ा.जमाना युवाओं का है सो इस कतार में कांग्रेस के तथाकथित युवराज राहुल गांधी ने बाजी मार ली और नोएडा प्रशासन को भनक लगने से पहले ही गांव में डेरा जमा लिया.राहुल गांव में कैसे पहुंचे ये भले ही वहां के लोगों के लिए एक यक्ष प्रश्न हो,लेकिन यूपी की मुखिया मायावती के लिए किसी तमाचे से कम नहीं था.कांग्रेसियों की नजर में अब भट्टा पारसौल लंका बन चुकी थी तो राहुल गांधी उनके अंगद.सो माया के गढ़ में अंगद ने अपने पैर कुछ यूं जमाये कि यूपी सरकार को उसे उखाड़ने में करीब 19 घंटे लग गये.इन 19 घंटों में जो कुछ हुआ वो ये बताने के लिए काफी था कि मिशन 2012 की तैयारियों में जुटी इन पार्टियों को किसानों की भावनाओं से कुछ लेना देना ही नही है.उधर मौके की नजाकत का फायदा उठाकर यूपी में दूसरे विपक्षी दलों ने भी अपनी ताल ठोंकनी शुरू कर दी.राजनाथ गाजियाबाद में एक दिन के अनशन पर बैठे तो तमाम दूसरे नेता मेरठ और बुलंदशहर सहित कई शहरों में गिरफ्तारियां दे रहे थे.इसी बीच राजनीति के शकुनि दिग्विजय सिंह ने अपनी चाल चलते हुए राहुल के कानों में वो मंतर मारा कि राहुल सीधे भट्टा पारसौल के कुछ किसानों के साथ प्रधानमंत्री से मिलने उनके आवास पहुंच गये और उन्हे गांव में राख के ढेर में नरकंकाल दबे होने की बात बताते हुए पूरे मामले की जांच की बात कही.जिसके बाद यूपी की सियासत में उबाल आना लाजमी था और हुआ भी वहीं, दोनों तरफ से बयानों के दौर शुरू हुए और मामला आगरा के फोरेंसिक लैब तक पहुंच गया जहां राख से लिए गये नमूनों को जांच के लिए भेज दिया गया.अब आप ही बताईये किसानों के हक की लड़ाई देखते ही देखते किस तरह से सियासी पचड़ों में फंसी उसका कोई ओर छोर भी है...
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